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शेर
मोहम्मद ज़ुबैर रूही इलाहाबादी
शेर
गई फ़स्ल-ए-गुल तो न गुल रहे न गुलों की जामा-दरी रही
न वो रंग-ओ-बू की फ़ज़ा रही न चमन की जल्वागरी रही
मोहम्मद ज़ुबैर रूही इलाहाबादी
नज़्म
कोई सूरत ऐसी
कितनी ताख़ीर से महर उभरा तिरी मेहर का आज
ख़ीरा आँखों की है मजबूरी कोई धुँदला-पन
मोहम्मद ज़ुबैर ख़ालिद
ग़ज़ल
न तो काम रखिए शिकार से न तो दिल लगाइए सैर से
बस अब आगे हज़रत-ए-इश्क़-जी चले जाइए घर ही को ख़ैर से
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
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ग़ज़ल
ऐ शैख़ क़दम रखियो न इस राह में ज़िन्हार
है सुब्हा-शिकन रिश्ता-ए-ज़ुन्नार-ए-मोहब्बत
मीर मोहम्मदी बेदार
शेर
किसी भूके से मत पूछो मोहब्बत किस को कहते हैं
कि तुम आँचल बिछाओगे वो दस्तर-ख़्वान समझेगा
ज़ुबैर अली ताबिश
शेर
सिलसिला रखता है मेरा कुफ़्र कुछ इस्लाम से
हैं कई तस्बीह के दाने मिरी ज़ुन्नार में
ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर
शेर
माथे पे लगा संदल वो हार पहन निकले
हम खींच वहीं क़श्क़ा ज़ुन्नार पहन निकले